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ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी विशेष तकनीक विकसित की है, जो मस्तिष्क की तरंगों (ब्रेनवेव्स) को पढ़कर उन्हें शब्दों और वाक्यों में बदल सकती है।

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ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी विशेष तकनीक विकसित की है, जो मस्तिष्क की तरंगों (ब्रेनवेव्स) को पढ़कर उन्हें शब्दों और वाक्यों में बदल सकती है। यह तकनीक एक विशेष कैप के जरिए काम करती है, जिसमें 128 इलेक्ट्रोड्स होते हैं, जो मस्तिष्क की विद्युत गतिविधियों को रिकॉर्ड करते हैं। यह मेडिकल क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है, खासकर उन लोगों के लिए जो बोलने या हिलने-डुलने में असमर्थ हैं, जैसे कि लकवाग्रस्त मरीज। लेकिन इसके साथ ही यह गोपनीयता (प्राइवेसी) और सहमति (कंसेंट) से जुड़े कई गंभीर सवाल भी उठाती है। इस तकनीक के पीछे तीन मुख्य तकनीकों का योगदान है: ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (BCI), डीप लर्निंग, और लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स (LLMs)। आइए इन जटिल शब्दों को आसान भाषा में समझें और इस तकनीक के फायदे, जोखिम, और नैतिक मुद्दों पर विस्तार से बात करें।

1. ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (BCI) क्या है?

आसान भाषा में:  
BCI एक ऐसी तकनीक है, जो मस्तिष्क और कंप्यूटर के बीच सीधा संपर्क बनाती है। यह मस्तिष्क की गतिविधियों (जैसे विचार या इरादे) को पढ़कर उन्हें कंप्यूटर के लिए समझने योग्य संकेतों में बदल देती है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति सोचता है कि वह “हैलो” कहना चाहता है, तो BCI उस विचार को पकड़कर स्क्रीन पर “हैलो” लिख सकता है।
कैसे काम करता है?  

2. डीप लर्निंग क्या है?

आसान भाषा में:  
डीप लर्निंग एक तरह की कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) है, जो मानव मस्तिष्क की तरह सीखने की कोशिश करती है। यह कंप्यूटर को जटिल पैटर्न को समझने और उनके आधार पर निर्णय लेने में सक्षम बनाता है। इसे “गहरा” इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह कई परतों (लेयर्स) में डेटा को प्रोसेस करता है।
BCI में डीप लर्निंग की भूमिका:  

3. लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स (LLMs) क्या हैं?

आसान भाषा में:  
LLMs ऐसे AI मॉडल हैं, जो बहुत सारे टेक्स्ट डेटा (जैसे किताबें, वेबसाइट्स) पर प्रशिक्षित होते हैं और इंसानों की तरह भाषा को समझ सकते हैं या बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, चैटGPT एक LLM है, जो सवालों के जवाब देता है और वाक्य बनाता है।
BCI में LLMs की भूमिका:  

इस तकनीक के फायदे

  1. मेडिकल क्षेत्र में क्रांति:  
       – यह उन लोगों के लिए वरदान हो सकता है, जो बोल नहीं सकते, जैसे स्ट्रोक या मोटर न्यूरॉन रोग (ALS) से पीड़ित लोग।  
       – उदाहरण: ऑस्ट्रेलिया के शोध में, एक व्यक्ति ने सिर्फ सोचकर “मैं खुशी से कूद रहा हूँ” जैसे वाक्य बनाए, जो स्क्रीन पर दिखाई दिए।  
       – यह तकनीक मरीजों को परिवार और समाज से जोड़ने में मदद कर सकती है।  
  2. तकनीकी प्रगति:  
       – यह तकनीक भविष्य में गेमिंग, वर्चुअल रियलिटी, और अन्य क्षेत्रों में इंसान-कंप्यूटर इंटरैक्शन को बदल सकती है।  
       – उदाहरण: सोचकर गेम खेलना या डिवाइस को नियंत्रित करना संभव हो सकता है।  
  3. वैयक्तिकरण:  
       – डीप लर्निंग और LLMs हर व्यक्ति के मस्तिष्क के अनूठे पैटर्न को सीख सकते हैं, जिससे यह तकनीक सभी के लिए अनुकूलित हो सकती है।

प्राइवेसी और कंसेंट से जुड़े सवाल

इस तकनीक के साथ कुछ गंभीर नैतिक और गोपनीयता से जुड़े मुद्दे भी हैं:

  1. ब्रेन प्राइवेसी का खतरा:  
       – मस्तिष्क के डेटा (न्यूरल डेटा) में बहुत निजी जानकारी होती है, जैसे विचार, भावनाएँ, या इरादे। अगर यह डेटा गलत हाथों में पड़ जाए, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है, जैसे कि ब्लैकमेल या मार्केटिंग के लिए।  
       – उदाहरण: “ब्रेनजैकिंग” का खतरा, जहां कोई हैकर आपके मस्तिष्क के डेटा तक पहुँच सकता है।  
  2. सहमति (कंसेंट) के मुद्दे:  
       – उपयोगकर्ताओं को यह पूरी तरह समझना चाहिए कि उनका डेटा कैसे और कहाँ इस्तेमाल होगा। लेकिन जटिल तकनीक के कारण, सामान्य लोग शायद पूरी जानकारी न समझ पाएँ।  
       – मौजूदा डेटा कानून, जैसे GDPR, न्यूरल डेटा को पूरी तरह कवर नहीं करते, जिससे और सख्त नियमों की जरूरत है।  
  3. गलत व्याख्या का जोखिम:  
       – मस्तिष्क के संकेतों की व्याख्या में गलती हो सकती है। उदाहरण के लिए, अगर तकनीक गलत तरीके से आपके विचार को “जुआ खेलने की इच्छा” समझ ले, तो आपको गलत तरीके से नुकसान हो सकता है, जैसे कि बैंक लोन से वंचित होना।  
  4. नैतिक उपयोग का सवाल:  
       – इस तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ मेडिकल उद्देश्यों तक सीमित रहेगा या इसे गैर-मेडिकल उद्देश्यों (जैसे विज्ञापन, निगरानी) के लिए भी इस्तेमाल किया जाएगा?  
       – उदाहरण: क्या कंपनियाँ आपके विचारों को पढ़कर आपको लक्षित विज्ञापन दिखा सकती हैं?  
  5. सामाजिक असमानता:  
       – अगर यह तकनीक महँगी रही, तो केवल अमीर लोग इसका लाभ उठा पाएँगे, जिससे सामाजिक असमानता बढ़ सकती है।  

तकनीक की सीमाएँ

  1. सटीकता की कमी:  
       – अभी यह तकनीक पूरी तरह सटीक नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के शोध में, यह सीमित शब्दों और वाक्यों को ही डिकोड कर पाई। पूर्ण बातचीत के लिए और सुधार की जरूरत है।  
  2. प्रायोगिक सीमाएँ:  
       – EEG कैप को पहनना और स्थिर रहना जरूरी है, जो रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिए अव्यवहारिक हो सकता है।  
  3. जटिलता:  
       – हर व्यक्ति के मस्तिष्क के पैटर्न अलग होते हैं, इसलिए तकनीक को हर बार नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है, जो समय और संसाधन माँगता है।  

भविष्य की संभावनाएँ और सुझाव

  1. मेडिकल क्षेत्र में प्रगति:  
       – यह तकनीक भविष्य में मस्तिष्क की चोटों, मिर्गी, या न्यूरोडीजेनेरेटिव रोगों (जैसे अल्जाइमर) के इलाज में मदद कर सकती है।  
  2. नैतिक और कानूनी ढांचा:  
       – न्यूरल डेटा की सुरक्षा के लिए खास कानून बनाने की जरूरत है, जैसे कि कैलिफोर्निया और कोलोराडो में शुरू किए गए हैं।  
       – उपयोगकर्ताओं को उनके डेटा के उपयोग के बारे में पारदर्शी जानकारी और बार-बार सहमति देने का अधिकार होना चाहिए।  
  3. सार्वजनिक जागरूकता:  
       – लोगों को इस तकनीक के फायदे और जोखिमों के बारे में शिक्षित करना जरूरी है, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें।  
  4. सुरक्षा उपाय:  
       – डेटा को एन्क्रिप्ट करना और गोपनीयता बढ़ाने वाली तकनीकों (जैसे डिफरेंशियल प्राइवेसी) का उपयोग करना जरूरी है।  

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