नया आयकर विधेयक सरल है, लेकिन सभी पहलू प्रगतिशील नहीं हैं

केंद्र सरकार बहुत जल्द संसद में आयकर विधेयक 2025 पेश करने जा रही है, जैसा कि वित्त मंत्री ने 1 फरवरी के बजट भाषण में वादा किया था। यह सच है कि प्रस्तावित बदलाव क्रांतिकारी या अत्यधिक प्रभावशाली नहीं हैं, बल्कि केवल सतही और मामूली हैं। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है—”जो चीज़ टूटी नहीं है, उसे ठीक करने की जरूरत नहीं है।” निरंतरता का मतलब जड़ता से चिपके रहना नहीं होता।

दरअसल, जैसे कंपनी अधिनियम, 1956 में बार-बार संशोधन किए गए, वैसे ही आयकर अधिनियम, 1961 भी संशोधनों का एक पैचवर्क बन गया है। इसलिए, इस पूरे कानून को फिर से लिखने का कारण वही हो सकता है जो 2013 के कंपनी अधिनियम को लाने के पीछे दिया गया था—अर्थात् कम पृष्ठ और कम धाराएं। लेकिन, पुराने कानून को जारी रखने से प्रशासन और करदाताओं को परिचित ढांचे में काम करने का लाभ मिलता है। यही कारण है कि जब भारतीय दंड संहिता (IPC) को बदलकर भारतीय न्याय संहिता (BNS) लाया गया, तो इसे कई आलोचकों ने “पुरानी शराब नई बोतल में” कहा और वकीलों एवं न्यायाधीशों के लिए यह एक नई चुनौती बन गई।

नए आयकर विधेयक में संरचनात्मक सुधार, समय-सीमा में छूट, और डिजिटल लेन-देन को प्रोत्साहन दिया गया है, लेकिन कर व्यवस्था के मौजूदा प्रावधानों को बरकरार रखा गया है। डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के लिए, इस विधेयक में उन व्यवसायों के लिए कर लेखा परीक्षा (Tax Audit) से राहत दी गई है, जिनका वार्षिक कारोबार ₹10 करोड़ तक है और जो मुख्य रूप से डिजिटल लेन-देन करते हैं। यह बदलाव मौजूदा अधिनियम में भी किया जा सकता था।

इसके अलावा, विधेयक में “आकलन वर्ष” (Assessment Year – AY) और “पिछला वर्ष” (Previous Year – PY) को हटाकर एक “कर वर्ष” (Tax Year) की अवधारणा लागू की गई है। इससे कर प्रणाली की शब्दावली सरल हो जाएगी, लेकिन फिर भी यह सवाल उठता है कि क्या यह सिर्फ संशोधन करके नहीं किया जा सकता था?

इसके विपरीत, 2010 में प्रस्तावित प्रत्यक्ष कर संहिता (Direct Taxes Code – DTC), जो कभी लागू नहीं हो सकी, कर कानून में जड़ से सुधार लाने का प्रयास थी। इसका उद्देश्य था कि संपत्ति से होने वाली आय और पूंजीगत लाभ (Capital Gains) को समान कर दायरे में लाना, क्योंकि सभी आय को एक समान कर के अधीन होना चाहिए।

नया कानून केवल एक दिखावटी परियोजना नहीं होना चाहिए, जिसे सिर्फ बदलाव के लिए बदलाव किया गया हो। यहां तक कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) को अधिक शक्तियां देने का स्वागतयोग्य प्रस्ताव भी मौजूदा ढांचे के तहत ही पूरा किया जा सकता था। नवाचार केवल नवाचार के लिए कई बार हानिकारक साबित हो सकता है, जैसा कि कुछ साल पहले हुआ जब इंफोसिस को आयकर ई-फाइलिंग पोर्टल को पुनः डिजाइन करने का कार्य सौंपा गया था। इस बदलाव ने कई समस्याएं खड़ी कर दीं, जिन्हें सुधारने में काफी समय लगा।

भारतीय संविधान 1950 में लागू हुआ और अब तक 106 बार संशोधित किया जा चुका है। इसे भी नए सिरे से लिखा जा सकता था, लेकिन इससे यह संदेह पैदा होता कि सरकार बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रही है, जिसे सभी राजनीतिक दलों और आम जनता द्वारा समान रूप से पवित्र माना जाता है।

भारतीय संविधान सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है और समय की कसौटी पर खरा उतरा है। यह परिवर्तनशील और लचीला है, इसलिए आवश्यकतानुसार इसमें संशोधन किए जाते रहे हैं। लेकिन जैसा कि कानूनी विद्वान नानी पालखीवाला ने कहा था—”हर बदलाव प्रगति नहीं होता।” निरंतर बदलाव वास्तविक सुधार नहीं होते, और हर नया परिवर्तन आवश्यक रूप से प्रगतिशील हो, यह जरूरी नहीं।

यहां तक कि कर अधिकारियों (Assessing Officers) के लिए भी नया कानून एक चुनौती बन सकता है, क्योंकि परिचित और निरंतरता प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने में मदद करते हैं। इसलिए, यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि यथास्थिति बनाए रखने की वकालत नहीं की जा रही, बल्कि केवल तर्कसंगत और आवश्यक सुधारों को ही लागू किया जाना चाहिए। सिर्फ बदलाव के लिए बदलाव करना व्यर्थ साबित हो सकता है।

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